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सु॒सं॒का॒शा मा॒तृमृ॑ष्टेव॒ योषा॒विस्त॒न्वं॑ कृणुषे दृ॒शे कम्। भ॒द्रा त्वमु॑षो वित॒रं व्यु॑च्छ॒ न तत्ते॑ अ॒न्या उ॒षसो॑ नशन्त ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

susaṁkāśā mātṛmṛṣṭeva yoṣāvis tanvaṁ kṛṇuṣe dṛśe kam | bhadrā tvam uṣo vitaraṁ vy uccha na tat te anyā uṣaso naśanta ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒ऽस॒ङ्का॒शा। मा॒तृमृ॑ष्टाऽइव। योषा॑। आ॒विः। त॒न्व॑म्। कृ॒णु॒षे॒। दृ॒शे। कम्। भ॒द्रा। त्वम्। उ॒षः॒। वि॒ऽत॒रम्। वि। उ॒च्छ॒। न। तत्। ते॒। अ॒न्याः। उ॒षसः॑। न॒श॒न्त॒ ॥ १.१२३.११

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:123» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:6» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे कन्या ! (सुसंकाशा) अच्छी सिखावट से सिखाई हुई (योषा) युवति (मातृमृष्टेव) पढ़ी हुई पण्डिता माता ने सत्यशिक्षा देकर शुद्ध की सी जो (दृशे) देखने को (तन्वम्) अपने शरीर को (आविः) प्रकट (कृणुषे) करती (भद्रा) और मङ्गलरूप आचरण करती हुई (कम्) सुखस्वरूप पति को प्राप्त होती है सो (त्वम्) तूँ (वितरम्) सुख देनेवाले पदार्थ और सुख को (व्युच्छ) स्वीकार कर, हे (उषः) प्रभात वेला के समान वर्त्तमान स्त्री ! जैसे (अन्याः) और (उषसः) प्रभात समय (न) नहीं (नशन्त) विनाश को प्राप्त होते वैसे (ते) तेरा (तत्) उक्त सुख न विनाश को प्राप्त हो ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे प्रातःकाल की वेला नियम से अपने अपने समय और देश को प्राप्त होती है, वैसे स्त्री अपने-अपने पति को पा कर ऋतुधर्म को प्राप्त होवें ॥ ११ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे कन्ये सुसंकाशा योषा मातृमृष्टेव या दृशे तन्वमाविष्कृणुषे भद्रा सती कं पतिं प्राप्नोषि सा त्वं वितरं सुखं व्युच्छ। हे उषो यथा अन्या उषसो न नशन्त तथा ते तत्सुखं मा नश्यतु ॥ ११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुसंकाशा) सुष्ठुशिक्षया सम्यक् शासिता (मातृमृष्टेव) विदुष्या मात्रा सत्यशिक्षाप्रदानेन शोधितेव (योषा) प्राप्तयौवना (आविः) (तन्वम्) शरीरम् (कृणुषे) करोषि (दृशे) द्रष्टुम् (कम्) सुखस्वरूपम् (भद्रा) मङ्गलाचारिणी (त्वम्) (उषः) उषर्वद् वर्त्तमाने (वितरम्) सुखदातारम् (वि) विगतार्थे (उच्छ) विवासय (न) (तत्) (ते) तव (अन्याः) (उषसः) प्रभाताः (नशन्त) नश्यन्ति ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथोषसो नियमेन स्वं स्वं समयं देशं च प्राप्नुवन्ति तथा स्त्रियः स्वकीयं स्वकीयं पतिं प्राप्यर्त्तुं प्राप्नुवन्तु ॥ ११ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी प्रभात वेळा नियमपूर्वक आपापल्या वेळी व स्थानी पोचते. तसे स्त्रीने आपल्या पतीला प्राप्त करून ऋतुधर्म प्राप्त करावा. ॥ ११ ॥